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१०.०६ सुभाषितानि। ०१ मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बडा दुश्मन।

पाठ ६ - सुभाषितानि।

कक्षा दशमी। शेमुषी।

प्रथमं सुभाषितम्

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥१॥

शब्दार्थ

  • आलस्यम् - आलस
  • हि - (अव्यय)
  • मनुष्याणाम् - मानवानाम्। जनानाम्। इन्सान का
  • शरीरस्थः - शरीरे स्थितः। (अपने ही) शरीर में रहने वाला
  • महान् - बहुत बडा
  • रिपुः - शत्रुः। वैरी। दुश्मन
  • नास्ति - नहीं है
  • उद्यमसमः - मेहनत जैसा
  • बन्धुः - आत्मीयः। नजदीकी मित्र
  • कृत्वा - कर के
  • यं - जिसे
  • न - नहीं
  • अवसीदति - दुखी होता है

अन्वय

आलस्यम् मनुष्याणां शरीरस्थः महान् शत्रुः (अस्ति)। (तथा च) उद्यमसमः बन्धुः न अस्ति यं कृत्वा (मनुष्यः) न अवसीदति।

हिन्द्यर्थ

आलस मनुष्य का (अपने खुद के ही शरीर में रहने वाला बहुत बडा दुश्मन है। और मेहनत जैसा कोई बन्धु नहीं है; जिसे (यानी मेहनत) कर के मनुष्य (कभी भी) दुखी नहीं होता है।



आलस मनुष्य का बहुत बडा शत्रु है। परन्तु इस से लडने के लिए हमें कही औह जाना नहीं होता है। अपितु आलस तो अपने ही शरीर में होता है। अर्थात् अगर हम ने चाहा तो हम आलस को झटक कर अपने काम में लग सकते हैं। परन्तु वे हम ही होते हैं जो कहते हैं - अरे जाने दो यार, बाद में कर लूंगा। मित्रों, यही आलस है। इसे दूर भगाना चाहिए।

उद्यम यानी परिश्रम, मेहनत। अगर आलस मनुष्य का शत्रु है, तो उद्यम के जैसा कोई दूसरा मित्र भी नहीं है। जिसे करने वाला मनुष्य कभी दुखी नहीं होता है। यहाँ यम् यह एक सर्वनाम लिखा है। जो की उद्यम के लिए प्रयुक्त किया गया है।




व्याकरण
  • शरीरस्थो महान् - शरीरस्थः + महान्। उत्वसन्धिः।
    • शरीरस्थः - शऱीरे तिष्ठति इति। उपपदतत्पुरुषसमासः।
  • नास्त्युद्यमसमो बन्धुः
    • न + अस्ति + उद्यमसमः + बन्धुः। 
    • दीर्घः, यण्, उत्वम् इति सन्धित्रयम्।
  • उद्यमसमः - उद्यमेन समः। तृतीयातत्पुरुषसमासः।
  • कृत्वा - कृ + क्त्वा। इति प्रकृतिप्रत्ययौ।
  • नावसीदति - न + अवसीदति। दीर्घसन्धिः।



१०.०६ सुभाषितानि। ०१ मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बडा दुश्मन। १०.०६ सुभाषितानि। ०१ मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बडा दुश्मन। Reviewed by मधुकर शिवशंकर आटोळे on नवंबर 13, 2019 Rating: 5

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