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१०.०४ शिशुलालनम्। कक्षा दशमी। शेमुषी। CBSE संस्कृतम्

प्रस्तुतोऽयं पाठः दिङ्नागविरचितः संस्कृतस्य प्रसिद्धनाट्यग्रन्थः “कुन्दमाला" इत्यतः पञ्चमाङ्कात् सम्पादनं कृत्वा सङ्कलितोऽस्ति। अत्र नाटकांशे रामः स्वपुत्रौ लवकुशौ सिंहासनम् आरोहयितुम् इच्छति किन्तु उभावपि सविनयं तं निवारयतः। सिंहासनारूढः रामः उभयोः रूपलावण्यं दृष्ट्वा मुग्धः सन् स्वक्रोडे गृह्णाति। पाठेऽस्मिन् शिशुवात्सल्यस्य मनोहारिवर्णनं विद्यते।

प्रस्तुत यह पाठ दिङ्नाग के द्वारा विरचित संस्कृत के प्रसिद्ध नाट्यग्रन्थ - कुन्दमाला से पांचवे अंक से संपादन कर के लिगा गया है। यहां नाट्यांश में राम अपने पुत्र लव और कुश को सिंहासन पर बैठाना चाहता है। परन्तु दोनों भी नम्रता के साथ उस का निवारण करते हैं। सिंहासन पर बैठे राम दोनों की सुन्दरता को देख कर मुग्ध होकर (उन दोनों को) अपनी गोद में लेता है। इस पाठ में शिशुवात्सल्य का सुन्दर वर्णन है।


(सिंहासनस्थः रामः। ततः प्रविशतः विदूषकेनोपदिश्यमानमार्गौ तापसौ कुशलवौ)
(सिंहासन पर बैठे राम। बाद में प्रवेश करते हैं विदूषक के द्वारा मार्गदर्शित तपस्वी कुश और लव।)

विदूषकः - इत इत आर्यो!
विदूषकः - इतः इतः आर्यो!
विदूषक - यहां से यहां से आर्य।

कुशलवौ - (रामम् उपसृत्य प्रणम्य च) अपि कुशलं महाराजस्य?
कुश और लव - (राम के पास जाकर और प्रणाम कर के) क्या ठीक है महाराज का? (अर्थात् क्या महाराज का सब कुछ ठीक ठाक है?)

रामः - युष्मदर्शनात् कुशलमिव।
 रामः - युष्मद् दर्शनात् कुशलम् इव।
राम - आप के दर्शन से कुशल ही है।

भवतोः किं वयमत्र कुशलप्रश्नस्य भाजनम् एव,
दोनों के (लिए) क्या हम् यहां कुशलप्रश्न के ही पात्र हैं


 न पुनरतिथिजनसमुचितस्य कण्ठाश्लेषस्य।
न पुनः अतिथिजन-समुचितस्य कण्ठाश्लेषस्य।
नहीं तो मेहमानों के लिए उचित गले मिलने के (हम पात्र हैं)

(परिष्वज्य) अहो हृदयग्राही स्पर्शः।
(गले लग कर) अहो, दिल को पकड़लेने वाला स्पर्श।


(आसनार्धमुपवेशयति)
(आसन-अर्धम् उपवेशयति)
(आसन पर बैठाता है)



उभौ - राजासनं खल्वेतत्, न युक्तमध्यासितुम्।
उभौ - राज-आसनं खलु एतत्, न युक्तम् अध्यासितुम्।
दोनों - राजा का आसन है यह, बैठने के लिए ठीक नहीं है।

रामः - सव्यवधानं न चारित्रलोपाय।
राम - व्यवधान के साथ नहीं है दोष के लिए।
व्यवधान का अर्थ है बीच में किसी चीज का होना। राम का कहना है कि अगर तुम राजा के आसन पर बैठना उचित नहीं समझते हो तो राजा का आसन और तुम इनके बीच यदि कोई अन्य चीज हो तो इस तरह से राजासन पर बैठने से कोई दोष नहीं होगा।


तस्मादङ्क-व्यवहितमध्यास्यतां सिंहासनम्। (अङ्कमुपवेशयति)
तस्मात् अङ्क-व्यवहितम् अध्यास्यतां सिंहासनम्। (अङ्कम् उपवेशयति)
इसीलिए गोद से व्यवहित सिंहासन पर बैठिए। (अपनी गोद में बिठाता है।)


उभौ - (अनिच्छां नाटयतः) राजन्! अलमतिदाक्षिण्येन।
दोनों - (अनिच्छा दिखाते हुए) राजन्, बहुत हुई दयालुता।
दाक्षिण्य के अनेक अर्थ होते हैं - नम्रता, दयालुता, औपचारिकता। यहाँ राम एक राजा होते हुए भी बालकों के लिए बहुत ही दाक्षिण्य दिखा रहे हैं। इसीलिए दोनों बच्चे झिझकते हुए कहते हुए यह वाक्य कहते हैं।


रामः - अलमतिशालीनतया।
राम - बहुत हुई अतिशालीनता।
और राम भी (जो एक राजा हैं और एक राजा) उन बच्चों को अपनी गोद पर बिठा रहे हैं तो उनकी नजर में यह उन बच्चों के लिए बहुत बडी बात होनी चाहिए। कोई आम बच्चें तो खुशी खुशी राजा की गोद में बैठने के लिए दौड लगाते। लेकिन वे दोनों शर्माते हैं। इसीलिए राम कहते हैं कि तुम्हारी शालीनता भी बहुत हुई है। इतनी शालीनता मत दिखाओ।


भवति शिशुजनो वयोऽनुरोधाद्
गुणमहतामपि लालनीय एव।
व्रजति हिमकरोऽपि बालभावात्
पशुपति-मस्तक-केतकच्छदत्वम्॥
छोटे बच्चे अपनी उम्र की वजह से बड़ों के भी लाड प्यार के लिए अधिकारी होते हैं।  जैसे कि  चंद्रमा भी  जब छोटा होता है ( प्रतिपदा तिथि का)  तो साक्षात भगवान शिव के मस्तक पर केतकी के फूल जैसे जाकर बैठ जाता है।
 यहां पर केवल इस श्लोक का अर्थ दिया गया है।  इस श्लोक का शब्द का अर्थ अनुभव संधि विच्छेद इत्यादि सभी के लिए  इस कड़ी पर जाएं।


रामः - एष भवतोः सौन्दर्यावलोकजनितेन कौतूहलेन पृच्छामि -
रामः - एषः भवतोः सौन्दर्य-अवलोक-जनितेन कौतूहलेन पृच्छामि -
राम - यह तुम (दोनों) की सुन्दरता को देखने से बने कौतूहल से पूछता हूँ -

क्षत्रियकुल - पितामहयोः सूर्यचन्द्रयोः को वा भवतोर्वंशस्य कर्ता?
क्षत्रिय कुल के पिता महा सूर्य और चंद्र इन दोनों में से आप के वंश का कर्ता कौन है?
प्राचीन भारत में  चतुर्वर्ण व्यवस्था थी।  जिनमें से एक वर्ण था क्षत्रिय। और ये क्षत्रिय  दो प्रकार के थे - सूर्यवंशी और चंद्रवंशी। यहां पर राम प्रतिपक्ष से पूछना चाहते हैं कि आप किस वंश के हैं  - सूर्यवंश या चंद्रवंश?
भवतोर्वंशस्य - भवतोः + वंशस्य। रुत्वम्।

लवः - भगवान् सहस्रदीधितिः।
लव - भववान् सूर्य।
लव अपने उत्तर में बताता है कि  उनका वंश भगवान सूर्य का है।
 सहस्र = हजार। दीधितिः = किरण। सहस्रदीधितिः - हजारों किरणों वाले भगवान् सूर्य।
रामः - कथमस्मत्समानाभिजनौ संवृत्तौ?
रामः - कथम् अस्मत् समान-अभिजनौ संवृत्तौ?
राम - क्या हमारे समान परिवार वाले ही हो गए?
तात्पर्य - अरे ये तो हमारे ही वंश के हो गए! (राम भी सूर्यवंश के ही थे।)

विदूषकः - किं द्वयोरप्येकमेव प्रतिवचनम्?
विदूषकः - किं द्वयोः अपि एकम् एव प्रतिवचनम्?
विदूषक - क्या दोनों का भी एक ही उत्तर है?
प्रतिवचनम् - उत्तरम्
अर्थात् लव ने उत्तर दिया था कि उसका सूर्यवंश है।  इस प्रश्न के साथ विदूषक जानना चाहता है कि क्या दोनों का भी समान ही उत्तर है अर्थात क्या दोनों का ही सूर्यवंश है या कुश चंद्रवंशी का है

लवः - भ्रातरावावां सोदर्यौ।
लवः - भ्रातरौ आवां सोदर्यौ।
लव - भाई हैं हम दोनों एक ही कोख से जन्मे हुए।

रामः - समरूपः शरीरसन्निवेशः। वयसस्तु न किञ्चिदन्तरम्।
राम - समान रूप वाली शरीर की बनावट है। उम्र का भी तो नहीं है किंचित अंतर। ( यानी दोनों की उम्र भी समान है।)
वयसस्तु - वयसः + तु। सत्वम्।
वयः - उम्र
वयसः - वयः + षष्ठी
वयसः - उम्र का
किञ्चिदन्तरम् - किञ्चित् + अन्तरम्। जश्त्वम्।

लवः - आवां यमलौ।
लवः -  हम दोनों जुड़वा हैं।

रामः - सम्प्रति युज्यते। किं नामधेयम्?
राम - अब ठीक है।  क्या नाम है?

लवः - आर्यस्य वन्दनायां लव इत्यात्मानं श्रावयामि
लव - आर्य की वंदना में लव ऐसा खुद को कहता हूँ।
यहाँ आर्य शब्द राम के लिए है। हमारी संस्कृति में आदरणीय व्यक्ति को नाम संबोधित नहीं करते।
लव इत्यात्मानं श्रावयामि। अर्थात् मेरा नाम लव है।
इत्यात्मानम् - इति + आत्मानम्। यण्।

(कुशं निर्दिश्य) आर्योऽपि गुरुचरणवन्दनायाम् .........
(कुश की तरफ इशारा करके)  आर्य भी गुरु चरणों की वन्दना में ……...
यहाँ आर्य शब्द कुश के लिए है। कुश लव का बडा भाई है। इसीलिए लव उसको आर्य कहता है।
यहाँ लव अपनी बात पूरी नहीं करता। कुश ही उसकी बात को तोडते हुए अगला वाक्य कहता है।

कुशः - अहमपि कुश इत्यात्मानं श्रावयामि।
कुशः - अहम् अपि कुशः इति आत्मानं श्रावयामि।
कुश - मैं भी कुश ऐसा अपने आपको कहता हूँ। (अर्थात् मैं अपना नाम कुश ऐसा बतता हूँ।)
कुश इत्यात्मानम् - कुशः + इति + आत्मानम्। (विसर्गलोपः, यण्)
वैसे तो श्रावयामि इसका मतलब सुनाता हूं ऐसा होता है परंतु यहां इस संदर्भ में कहता हूं यही अर्थ ठीक है।

रामः - अहो! उदात्तरम्यः समुदाचारः। किं नामधेयो भवतोर्गुरुः?
राम - अहो  कैसा ऊंचा और लुभावना बर्ताव है (इन दोनों का)।  क्या नाम है आपके गुरु का?
आर्यस्य वन्दनायां लवः इति आत्मानं श्रावयामि। गुरुचरणवन्दनायां …. अहमपि कुशः इति आत्मानं श्रावयामि। - राम उन दोनों के नाम बताने के इस तरीके से खुश होते हैं। इसीलिए कहते हैं कि कितना ऊँचे दर्जेका और लुभावना बरताव है।
भवतोर्गुरुः - भवतोः + गुरुः। रुत्वम्।

लवः - ननु भगवान् वाल्मीकिः।
लव - भगवान् वाल्मीकि।
ननु। यह शब्द एक अव्यय है और बातचीत करने के एक खास तरीके से इसका इस्तेमाल किया जाता है।
 भगवान्।  वैसे तो हम आम भाषा में भगवान शब्द का अर्थ ईश्वर लेते हैं परंतु भगवान शब्द का ऐसा अर्थ नहीं है। इस वाक्य में भगवान यह शब्द वाल्मीकि इस ऋषि के लिए इस्तेमाल किया गया है परंतु वाल्मीकि तो ईश्वर नहीं है।  भगवान शब्द का सही अर्थ जानने के लिए इस कड़ी पर जाएं।

रामः - केन सम्बन्धेन?
राम - किस सम्बन्ध से?

लवः - उपनयनोपदेशेन।
लव - उपनयन सम्बन्धी उपदेश से।
प्राचीन काल में उपनयन संस्कार किया जाता था। और लव कुश का उपनयन संस्कार वाल्मीकि ने किया था।
उपनयनोपदेशेन - उपनयन + उपदेशेन। गुणः।

रामः - अहमत्रभवतो: जनकं नामतो वेदितुमिच्छामि।
राम -  मैं आपके पिता को नाम से जानना चाहता हूँ।
नामतो वेदितुम् - नामतः वेदितुम्। उत्वम्।

लवः - न हि जानाम्यस्य नामधेयम्। न कश्चिदस्मिन् तपोवने तस्य नाम व्यवहरति।
लव - मैं नहीं जानता उनका नाम। ना कोई इस तपोवन में उनका नाम लेता है।
जानाम्यस्य - जानामि + अस्य। यण्।
कश्चिदस्मिन् - कश्चित् + अस्मिन्। जश्त्वम्।

रामः - अहो माहात्म्यम्।
राम - यह तो बहुत बड़ी बात है।

कुशः - जानाम्यहं तस्य नामधेयम्।
कुश -  मैं जानता हूं उनका नाम।

रामः - कथ्यताम्।
राम -  बोलो।

कुशः - निरनुक्रोशो नाम....
कुश - निर्दय …

रामः - वयस्य, अपूर्वं खलु नामधेयम्।
राम - (विदूषक से) मित्र यह नाम तो अपूर्व है।
अपूर्व - जो पहले नहीं सुना।

विदूषकः - (विचिन्त्य) एवं तावत् पृच्छामि। निरनुक्रोश इति क एवं भणति?
विदूषक - (सोच कर)  मैं ऐसा पूछता हूं। (उन्हे)  निर्दय ऐसा कौन कहता है?

कुशः - अम्बा।
कुश - माँ

विदूषकः - किं कुपिता एवं भणति, उत प्रकृतिस्था?
विदूषक - क्या गुस्से में ऐसा कहती है या यूं ही?

कुशः - यद्यावयोर्बालभावजनितं किञ्चिदविनयं पश्यति
कुशः - यदि आवयोः बालभाव-जनितं किञ्चित् अविनयं पश्यति
कुश - यदि हम दोनों के बचपने से जनित कोई सैतानी को देखती है
यद्यावरयोर्बालभावजनितम्
यदि + आवयोः + बालभावजनितम्। यण्, रुत्वम्।
किञ्चिदविनयम्
किञ्चत् + अविनयम्। जश्त्वम्।

तदा एवम् अधिक्षिपति निरनुक्रोशस्य पुत्रौ, मा चापलम् इति।
तदा एवम् अधिक्षिपति निरनुक्रोशस्य पुत्रौ, मा चापलम् इति।
तब ऐसे निन्दा करती है - निर्दय के बच्चों, मत करो बदमाशी।
कुश का कहना यह है कि वे दोनों कुश और लव बच्चें हैं। और जब वे बदमाशी, सैतानी करते हैं तो उनकी माता उन्हे - निर्दय के बच्चों। ऐसे गाली देती है।

विदूषकः - एतयोर्यदि पितुर्निरनुक्रोश इति नामधेयम्
विदूषकः - एतयोः यदि पितुः निरनुक्रोशः इति नामधेयम्
विदूषक - इन दोनों के यदि पिता का निर्दय ऐसा नाम है ….


एतयोर्जननी तेनावमानिता निर्वासिता एतेन वचनेन दारकौ निर्भर्त्सयति।
एतयोः जननी तेन अवमानिता निर्वासिता एतेन वचनेन दारकौ निर्भर्त्सयति।
इन दोनों के माता (जिसे) उस (पिता ने) अपमानित किया है (घर से) निकाल दिया है, इस वाक्य से अपने बच्चों की निन्दा करती है।
अर्थात् यहाँ विदूषक अन्दाजा लगाता है कि संभवतः इन दोनों के पिता ने इनकी माता का अपमान कर के घर से निकाल दिया होगा इसीलिए वह माता इन्हे निर्दय के बच्चों इस वाक्य से निन्दित करती है। अब ये बच्चें निर्दय के बच्चों इस वाक्य का अर्थ नहीं समझते हैंं। इन्हों ने यही समझ रखा है कि अपने पिता का नाम - निर्दय है।
यहाँ पर सोचने वाली बात यह है कि उन दोनों के पिता स्वयं राम ही हैं। परन्तु राम को भी पता नहीं है कि ये दोनों बच्चें उसके अपने ही है। और उन बच्चों को भी पता नहीं है कि हम जिस राजा की गोद में बैठे हैं वे राजा ही उनके पिता हैं।


रामः - (स्वगतम्) धिङ् माम् एवंभूतम्।
राम - (मन में) धिक्कार है इस प्रकार से।

सा तपस्विनी मत्कृतेन अपराधेन स्व-अपत्यम् एवं मन्युगर्भैः अक्षरैः निर्भर्त्सयति। (सवाष्पम् अवलोकयति)
वह तपस्विनी मेरे द्वार किए गए अपराध से अपने अपत्य (पुत्र) को ऐसे क्रोध भरे अक्षरों से डांटती है। (आँसूभरी आखों से देखता है।)
यहाँ राम को पता नहीं है कि जिस तपस्विनी के बारे में बात हो रही है, वह सीता ही है।

रामः - अतिदीर्घः प्रवासः अयं दारुणश्च।
राम - बहुत लंबा सफर है यह और कठोर भी।

(विदूषकमवलोक्य जनान्तिकम्)
(विदूषक को देख कर जनान्तिक में)
जनान्तिक - नाटक में अगर कोई नट (Actor) अपने मन की बात को दूसरे नट को अन्य नटों की उपस्थिति में कहता है तो उसे जनान्तिक कहते हैं। यानी उस बात को केवल नाटक देखने वाले दर्शक ही सुन रहे हैं। और मंच पर उपस्थित अन्य नटों ने वह बात नहीं सुनी ऐसा समझा जाता है।
प्रस्तुत प्रसंग में अब आनेवाला वाक्य केवल विदूषक सुनेंगा। कुश और लव नेे यह बात नहीं सुनी है। ऐसा माना जाएगा।

कुतूहलेन आविष्टो मातरम् अनयोः नामतो वेदितुम् इच्छामि।
(मैं) कुतूहल से आविष्ट (हूँ) माता को इन की नाम से जानना चाहता हूँ।

न युक्तं च स्त्रीगतम् अनुयोक्तुम्, विशेषतः तपोवने। तत् कोऽत्र अभ्युपायः?
(लेकिन) यह ठीक नहीं है औरतों वाली बातें करना, खास कर तपोवन में। तो फिर क्या है यहां सही उपाय?

विदूषकः - (जनान्तिकम्) अहं पुनः पृच्छामि। (प्रकाशम्) किं नामधेया युवयोः जननी?
विदूषक - (जनान्तिक में) तो फिर मैं पूछता हूँ। (प्रकट रूप में) क्या नाम है तुम्हारी माँ का?
राम एक राजा हैं। और इतने बडे राजा को ऐसी औरताना बाते करना शोभा नहीं देता इसीलिए विदूषक ही उनको उनकी माँ का नाम पूछ लेता है।

लवः - तस्याः द्वे नामनी।
लव - उसके दो नाम हैं।
नाम यह नपुंसकलिंग का शब्द है। इसका मूल शब्द है - नामन्।
नामन् के रूप - नाम नमनी नामानि।

विदूषकः - कथमिव?
विदूषक - कैसे?

लवः - तपोवनवासिनो देवी इति नाम्ना आह्वयन्ति, भगवान् वाल्मीकिः वधूः इति।
लव - तपोवन वासी लोग देवी इस नाम से बुलाते हैं, भगवान् वाल्मीकि वधू इस (नाम से)

रामः - अपि च इतः तावद् वयस्य! मुहूर्त्तमात्रम्।
राम - और याहाँ से भी, मित्र, पल भर के लिए।
यहाँ राम के इस वाक्य का भावार्थ है कि - मित्र विदूषक, जरा कुछ देर के लिए यहाँ आओ।

विदूषकः - (उपसृत्य) आज्ञापयतु भवान्।
विदूषक - (पास जाकर) आज्ञा कीजिए आप।

रामः - अपि कुमारयोः अनयोः अस्माकं च सर्वथा समरूपः कुटुम्बवृत्तान्तः?
राम - क्या इन दोनों कुमारों का और हमारा हर तरह से समान ही कुटुंबवृत्तान्त है?
अब राम को किंचित् शक हो रहा है कि हमारी और इन दोनों बच्चों की कहानी एक सी ही है।
कुटुंब - परिवार। वृत्तान्त - बात, कहानी।

(नेपथ्ये)
(पर्दे में पीछे से)


इयती वेला सञ्जाता रामायणगानस्य नियोगः किमर्थं न विधीयते?
इतना वक्त हो गया रामायण गाने का कार्यारंभ क्यों नहीं किया जा रहा है?


उभौ - राजन्! उपाध्यायदूतः अस्मान् त्वरयति।
दोनों - महाराज, उपाध्याय का दूत हमें जल्दी करने को कह रहा है।
उपाध्याय - शिक्षक
दूत - सेवक, संदेश भेजने वाला

रामः - मयापि सम्माननीय एव मुनिनियोगः। तथाहि -
राम - मेरे लिए भी सम्माननीय ही है मुनिकार्य। इसीलिए -

भवन्तौ गायन्तौ कविरपि पुराणो व्रतनिधिर्
गिरां सन्दर्भोऽयं प्रथममवतीर्णो वसुमतीम्।
कथा चेयं श्लाघ्या सरसिरुहनाभस्य नियतं,
पुनाति श्रोतारं रमयति च सोऽयं परिकरः॥
शब्दार्थ -
भवन्तौ - आप दोनों
गायन्तौ - गाने वाले हो।
यानी लव और कुश
कविः - कवि
अपि - भी
पुराणः - पुराने (अर्थात् अनुभवी वयस्क)
व्रतनिधिः - तपस्वी
अर्थात् वाल्मीकि
गिराम् - वाणी, भाषा
सन्दर्थः - सन्दर्थ
अयम् - यह
प्रथमम् - सबसे पहले
अवतीर्णः - आया हुआ, उतरा हुआ
वसुमतीम् - पृथ्वी पर
कथा - कहानी
च - और
इयम्- यह
श्लाघ्या - प्रशंसनीय
सरसिरुहनाभस्य - भगवान् विष्णु के (सरसिरुहनाभः - विष्णुः)
नियतम् - हमेशा
पुनाति - पवित्र करती है
श्रोतारम् - सुनने वाले को
रमयति - खुश करती है।
च - और
सः - वह
अयम् - यह
परिकरः - संयोग, मिलाप
इस श्लोक के अन्वय तथा अर्थ केलिए शेमुषी पाठ्यपुस्तक देख लीजिए। पाठ के अन्त में अन्वय तथा अर्थ हैं।

वयस्य! अपूर्वः अयं मानवानां सरस्वत्यवतारः,
मित्र, अपूर्व है यह मानवों का सरस्वती-अवतार

तदहं सुहृज्जनसाधारणं श्रोतुम् इच्छामि।
तो मैं (रामायण कथा को) मित्रों तथा सामान्य सभी लोगों के साथ सुनना चाहता हूँ।

सन्निधीयन्तां सभासदः, प्रेष्यताम् अस्मदन्तिकं सौमित्रिः,
पास आ जाए सभासद, भेज दिया जाए मेरे पास लक्ष्मण को
सभासद् - राजा की सभा में राजा के साथ सलाह मशवरा करने वाले लोग
सौमित्रिः - लक्ष्मण

अहम् अपि एतयोः चिरासनपरिखेदं विहरणं कृत्वा अपनयामि।
मैं भी इन के चिरसन के दुख का विहरण कर के ले जाता हूँ।
चिर - बहुत देर तक
चिरासन - बहुत देर तक बैठे रहना
चिरसन परिखेद - बहुत देर तक बैठे रहने के कारण तकलीफ होना


(इति निष्क्रान्ताः सर्वे)
(सब निकल जाते हैं।)

१०.०४ शिशुलालनम्। कक्षा दशमी। शेमुषी। CBSE संस्कृतम् १०.०४ शिशुलालनम्। कक्षा दशमी। शेमुषी। CBSE संस्कृतम् Reviewed by मधुकर शिवशंकर आटोळे on मार्च 05, 2020 Rating: 5

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